Wednesday, September 1, 2021

मैं क्यों बीमार था?


 बचपन से मैं तथाकथित रूप से बीमार रहता था।

 मुझे प्रायः बुखार आ जाता था और पेट में दर्द होता था। मैं हमेशा पेट डबडबाकर देखता रहता था कि यह फूला हुआ तो नहीं है।

 बीमारी मेरे लिए सम्पत्ति जैसी थी। यदि कोई काम नहीं करना होता था तो मैं बीमारी का बहाना बना देता था। लोगों के सामने हमेशा अपनी बीमारी के बारे में बात करके उनसे सहानुभूति पाता रहता था। पूरे क्षेत्र में पता था कि मैं बीमार रहता था।  मुझसे मिलते ही लोग सबसे पहले मेरी तबियत के बारे में पूछते थे।

 मुझे गला में भी दर्द हो जाता था। कभी-कभी तो जून की गर्मी में भी मेरे गला में इन्फेक्शन होकर 100 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा बुखार हो जाता था।

मेरे कुछ साथी खुलकर कहते थे कि मुझे शक की बीमारी है।

मैं उन्हें डॉक्टरों के पुर्जे दिखाकर तर्क करता था,"शक की बीमारी है तो गला में दर्द होकर बुखार कैसे हो जाता है?"

"मैं बीमार हूँ" का पोस्टर मैं अपने सीना और पीठ पर हमेशा लगाए रहता था।

 एक बार मुझे बुखार हुआ, लेकिन छुट्टी की कमी थी, अतः बैंक गया। मैंने एक साथी को अपने हिस्से का काम करने के लिए अनुरोध किया क्योंकि मैंने सुना था कि बुखार में शरीर पर अधिक जोर देने से फेफड़ा में पानी आ जाता है।

 मेरे साथी ने मेरा काम तो कर दिया, लेकिन उन्होंने मुझे काफी कुछ उपदेश सुना दिया।

  बीमार रहने की बात मेरे अवचेतन में कैसे बैठी? 

मैंने बचपन में सुना था कि बीमार लोग फल खाते हैं। 

बीमार होने पर बचपन में मुझे अपना मनपसंद खाना "पावरोटी, दूध और चीनी" भी मिलता था।

बीमार होने पर मुझे स्कूल भी नहीं जाना पड़ता था और घर का कोई काम भी नहीं करना पड़ता था।

अतः बीमार होना मेरे अवचेतन मन को लाभ का सौदा लगता था। लेकिन, मेरी अंतरात्मा बहाने बनाने के लिए मुझे नहीं कचोटे और न ही लोग मुझे बहानेबाज कहें, इसलिए मेरे अवचेतन मन ने शायद बीमारी के लक्षण पैदा कर दिए थे।

यद्यपि ऐसा मैं अकेला नहीं हूँ, अनेक लोग हैं जिन्हें सचमुच कोई बीमारी नहीं होती है। लेकिन उनमें बीमारी जैसे लक्षण होते हैं। सुयोग्य चिकित्सक भी कहते हैं कि उनके यहाँ जितने रोगी आते हैं, उनमें आधे से ज्यादा मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार होते हैं। उनसे अच्छी तरह बात करने से और विटामिन आदि लिख देने से वे ठीक हो जाते हैं। अंग्रेजी में Placebo नामक एक शब्द है, जिसका मतलब होता है-" नकली या मनोवैज्ञानिक दवा"।

एक दिन मैंने निर्णय लिया कि अब मैं स्वस्थ बनूँगा। इसके बाद सहानुभूति पाने के लिए लोगों के निकट अपनी बीमारी का वर्णन करना मैंने बन्द कर दिया। बीमारी के कारण किसी काम को टालना भी मैंने बंद कर दिया। मैंने स्वास्थ्यवर्द्धक आदतें भी अपना ली।

 अब मैं स्वस्थ हो गया हूँ, लेकिन पुराने मित्र अभी भी मिलते ही चिंता के साथ मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछते हैं।







Monday, August 23, 2021

स्वाद:- आदत है या नशा?

किसी को मिठाई अच्छी लगती है; कोई मटन का चहेता होता है। राजस्थान में दाल-बाटी चूरमा बड़े ही चाव से खाई जाती है। पंजाब में मक्के दी रोटी और सरसों दा साग का बोल-बाला है। महाराष्ट्र में पाव लोकप्रिय है तो तमिलनाडु में डोसा और इडली की धूम होती है। गुजरात में मीठी दाल खाई जाती है। बिहार में लोगों को नमकीन दाल प्रिय है।


1986 में मैं कोटा के एक होटल में 12 सप्ताह के लिए ठहरा था। एक सुबह मैं अपने कमरे में दही-चूरा-चीनी और आम बड़े चाव से खा रहा था। मेरे एक पंजाबी मित्र उसी समय पहुँचे। मैंने उन्हें भी खाने का न्योता दिया। वे हाथ जोड़कर बोले कि दही-चूरा-चीनी और आम मुँह में रखकर वे कंठ के नीचे भी नहीं ले जा पायेंगे। मैंने उनके लिये उनके लिये टोस्ट-आमलेट मँगाया।


  बचपन में हम जिस वातावरण में पले, वहाँ जो खाना खाया जाता था, हमें अच्छा लगने लगा।


बचपन में मैं अपने बुजुर्गों को चाय पीते देखता था। बड़ा होकर मैं भी मीठी चाय की चुस्की लेने लगा।


दुर्भाग्यवश जनवरी, 2014 में मुझे मधुमेह हो गया। चिकित्सक ने चीनी बंद कर दी। श्रीमती जी मुझे फीकी चाय परोसने लगीं। मन मसोसकर मैं फीकी चाय घोंटता था। प्रतीत होता था, "जीवन श्वेत-श्याम फ़िल्म हो गया है।" धीरे-धीरे मैं नये तौर-तरीकों में रम गया। अब मुझे मीठी चाय ही स्वादहीन लगती है।


अतः स्पष्ट है कि स्वाद एक आदत है और उसे बदला जा सकता है।


"सत्य के साथ मेरे प्रयोग" में महात्मा गांधी ने लिखा है कि उन्होंने मसालों को त्याग कर जब उबली हुई सब्जियां खाना प्रारंभ किया तो कुछ दिनों के बाद उन्हें उबली सब्जियां ही स्वादिष्ट लगने लगी।


अतः आप जब चाहें अपनी स्वास्थ्य की मांग के अनुसार स्वाद की नई आदतें बना सकते हैं।


प्रथम सप्ताह में आपको अधिक इच्छा-शक्ति पड़ेगी। जब अवांछित आदतों को करने की इच्छा आपको बेचैन करे तो रचनात्मक कार्यों में लग जाइये। रचनात्मक कार्यों के सफल निष्पादन से आपके शरीर में हैप्पी हार्मोन डोपामाइन मुक्त होगा, उपलब्धि प्राप्त करने की भावना आपके मन-मस्तिष्क को उत्साहपूर्ण कर देगी।


 यदि कोई उचित कार्य न हो तो सीढ़ियाँ चढ़िये या किसी अन्य  शारीरिक ऐक्टिविटी में लग जाईये। इससे आपके शरीर में हैप्पी होर्मोन एंडोर्फिन मुक्त होगा जो आपको बेचैनी से राहत देगा।


 दूसरे सप्ताह में आप का शरीर और मन नई आदतों के साथ तालमेल बैठाने लगेगा।


 तीसरा सप्ताह बीतने के बाद नई आदतें आपको अच्छी लगने लगेंगी।

 

छियासठ दिन से तीन महीने के बीच में सामान्यतया नई आदतें आपके स्वभाव का अभिन्न अंग बन जायेंगी।