Saturday, August 12, 2017

हमारे रंगीन चश्मे


'एथेंस का सत्यार्थी' के नायक ने जिद करके नँगा सत्य देखने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप, उसकी आँखें चौन्धिया गयीं और वह अंधा हो गया।

सच पूछिए तो अपने बारे में नग्न सत्य हम भी नहीं बर्दाश्त कर पाते हैं। अतः अपनी आंखों पर रंगीन चश्मे लगाकर खुद को धोखा देते हैं।

अमिताभ बच्चन की सुप्रसिद्ध फ़िल्म शराबी याद कीजिये। शराब की अपनी बुरी लत को तर्कसंगत बनाने के लिए एक गाने में उन्होंने सारे संसार को नशे में धुत बता दिया।

प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंखों के सामने पाक-साफ दिखना चाहता है। मसलन यदि मैं कामचोर हूँ तो कम से कम अपनी नज़रों के सामने गिरना नहीं चाहूँगा। अतः अपने-आप को ठगने के लिए मुझे एक रंगीन चश्मा पहनना होगा, जिस चश्मे से सारा विश्व कामचोर दिखेगा। लेकिन बात इतने पर समाप्त नहीं होती है। मुझे अपनी अदालत में दूसरों को कामचोर साबित करके दिखाना पड़ेगा, ताकि मैं अपनी कामचोरी को आम इंसानी कमजोरी मानकर तर्कसंगत साबित कर सकूँ।
यहीं से सारे झगड़ों की शुरुआत होती है। मैं अपने अधीनस्थों पर कामचोरी का आरोप लगाता हूँ, चाहे वे कितनी ही तन्मयता या अतन्मयता के साथ अपना कार्य कर रहे हों। बदले में वे भी मेरा प्रतिरोध प्रारम्भ कर देते हैं। फिर गुट बनते हैं। लोग एक दूसरे को नीचे दिखाने के लिये प्रयत्न-रत हो जाते हैं और अपने दिन की चैन और रात की नींद हराम कर लेते हैं।

परस्पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच टीम-भावना की बलि चढ़ाई जाती है और परिवार, समाज और संस्थाएं इसका भारी मूल्य चुकाती हैं।
टीम-भावना के समाप्त होने के कारण हम निर्रथक झगड़ों में फंस के रह जाते हैं। परिणामस्वरूप, हम मनोवांछित सफलताएँ नहीं प्राप्त कर पाते हैं और जीवन के हमारे बहुत सारे अरमान अधूरे रह जाते हैं।

आखिर इस गम्भीर बीमारी का क्या इलाज हो सकता है?



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