बुढ़ापा शेष अन्य चीजों जैसा ही है , इसे सफल बनाने के लिये आपको जवानी में ही शुरुआत करनी पड़ती है। --- थिओडोर रूज़वेल्ट
आजकल सोशल-मीडिया पर वृद्धाश्रम पर अत्यन्त भावनात्मक लेख पोस्ट किये जा रहे हैं, जिन्हें पढ़कर कलेजा मुँह को आ जाता है। यह एक बड़ी विडंबना है कि सोशल मीडिया पर भावनात्मक लेख लिखने वाले कुछ लोग अपनी वास्तविक जिंदगी में ठीक उसका उल्टा करते हैं। कुछ लोगों को तो मैं अच्छी तरह से जानता हूँ , लेकिन नाम बताने की हिम्मत तो मे्रे पुरखे भी नहीं कर पाएंगे। इसमें अन्यथा लेने वाली कोई बात भी नहीं है क्योंकि ,"मुख में राम बगल में छुरी"वाली कहावत तो कोई नई नहीं है।
आजकल सोशल-मीडिया पर वृद्धाश्रम पर अत्यन्त भावनात्मक लेख पोस्ट किये जा रहे हैं, जिन्हें पढ़कर कलेजा मुँह को आ जाता है। यह एक बड़ी विडंबना है कि सोशल मीडिया पर भावनात्मक लेख लिखने वाले कुछ लोग अपनी वास्तविक जिंदगी में ठीक उसका उल्टा करते हैं। कुछ लोगों को तो मैं अच्छी तरह से जानता हूँ , लेकिन नाम बताने की हिम्मत तो मे्रे पुरखे भी नहीं कर पाएंगे। इसमें अन्यथा लेने वाली कोई बात भी नहीं है क्योंकि ,"मुख में राम बगल में छुरी"वाली कहावत तो कोई नई नहीं है।
ऐसे देखा जाए तो हमलोग भी वृद्ध-मोहल्ले में रहते हैं। हमारे मोहल्ले में अधिकांश युवक बंगलुरु या अन्य बड़े शहरों में काम करते हैं और उनके माँ-बाप यहाँ अकेले रहते हैं। कई बार बच्चे जिद करके हमें अपने साथ ले जाते हैं , लेकिन कुछ दिन बाद भागकर हमलोग फिर बैंकर्स कॉलोनी, मुजफ्फरपुर आ जाते हैं, क्योंकि वहां हमारा मन ही नहीं लगता है। ईश्वर की असीम कृपा से हमलोगों को बच्चों पर आश्रित नहीं रहना पड़ता है, लेकिन प्रौढ़ अवस्था या बुढ़ापा अकेले बिताना भी काफी चुनौतीपूर्ण कार्य है।
लोग प्रायः कहते हैं कि माँ-बाप बच्चों की इतने शौक से परवरिश करते हैं, लेकिन बच्चे अपने माँ-बाप को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं। वस्तुतः बच्चे इतने मनोहर होते हैं कि लोग दूसरों के बच्चों से खेलने में भी आनंदित हो जाते हैं। कोई बच्चा आपको देखकर जबरदस्ती सम्मान नहीं मांगता है और न ही वह आपसे किसी की शिकायत करता है, वह सिर्फ आपको देखकर हँसता-मुस्कराता है। मेरे पड़ोस की बच्ची जब भी मुझे देखती है, हँसते हुए मेरी तरफ दौड़ती है, मैं भी उसे गोद में उठाकर प्यार करता हूँ और थोड़ी देर के लिए अपना तनाव भूल जाता हूँ। वस्तुतः बच्चे अपने-आपको इतना हल्का बना लेते हैं कि हर कोई उन्हें उठा लेता है। वे अपने माँ-बाप को कभी यह नहीं कहते कि आपने मुझे पैदा किया है तो आपको मेरा लालन-पालन करना ही पड़ेगा। अर्थात वे अपना अधिकार नहीं मांगते हैं, बल्कि अपनी प्यारी छवि से सब काम करा लेते हैं।
मेरे मित्र अरुण जी के पिता जी अत्यंत बूढ़े थे, जब भी मैं अरुण जी से मिलने जाता था, चाचा जी के लिए पान लेकर जाता था, क्योंकि वे पान के बहुत शौक़ीन थे और बहुत खुश होते थे, थोड़ी देर मैं उनके पास बैठकर बात करता था। वे मेरे परिवार के सदस्यों के कुशल-क्षेम पूछते थे। कभी भी उन्होंने अपने बेटे या बहू की शिकायत नहीं की। अगर शिकायत करते तो शायद मैं उनके पास बैठ भी नहीं पाता। कभी उनके बच्चों या बहू ने भी उनकी शिकायत नहीं की। यद्पि बुढ़ापा काफी कष्टकारी होता है, फिर भी उन्होंने अपने मन में दूसरों के प्रति खटास नहीं पाली और काफी संतुष्टि के साथ इस संसार को अलविदा कहा। मैं ऐसे बुजुर्गों को भी जानता हूँ , जो हर बात में मीन-मेख निकाल कर न सिर्फ अपनी जिंदगी नरक बना लेते हैं, बल्कि पूरे परिवार के लिए भारी मुसीबत बन जाते हैं।
मुझे तो श्रवण कुमार की कहानी पढ़कर बड़ा अटपटा लगता है। श्रवण कुमार माँ-बाप की भक्ति के लिए आदर्श थे। आदर्श तो लाखों में एक होता है तभी उसकी उपमा दी जाती है, अगर श्रवण कुमार लाखों में एक थे तो तब शेष बच्चे कैसे थे ? और क्यों वर्षों से यह कहावत चली आ रही है कि बाप बनकर कोई किसी से कुछ नहीं ले सकता है।
बेवफाई एक शाश्वत सत्य है। अपने शरीर से ज्यादा प्यारा कौन हो सकता है, बचपन से इसका हम कितना ख्याल रखते हैं, बढ़िया से बढ़िया भोजन कराते हैं, सुन्दर वस्त्र पहनाते हैं, इत्र, क्रीम और महंगे साबुन लगाते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा कष्ट भी हमें अपना शरीर ही देता है।अनेक प्रकार की बीमारियों को पालकर शरीर हमें कष्ट देता है और बुढ़ापे में भी साथ नहीं देता है। एक दिन तो यह पूरी तरह जवाब दे देता है।
ईसा मसीह ने दस कोढ़ियों को ठीक कर दिया, उनमें से सिर्फ एक उन्हें धन्यवाद देने आया, शेष नौ ने इस छोटी सी औपचारिकता को निभाना भी उचीत नहीं समझा। तात्पर्य यह है कि यह निर्मम संसार युगों-युगों से ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा। बेहतर है कि इस संसार के अनुसार हम अपने-आप को ढाल लें।
बिंदास जीने का नाम ही जीवन है। अतः बच्चों के साथ रहें, वृद्धाश्रम में या वृद्धमोहल्ले में रहें, अपने अस्तित्व से दूसरों को खुश रखें, उनपर कम से कम बोझ बनें और बिंदास जियें।
ईसा मसीह ने दस कोढ़ियों को ठीक कर दिया, उनमें से सिर्फ एक उन्हें धन्यवाद देने आया, शेष नौ ने इस छोटी सी औपचारिकता को निभाना भी उचीत नहीं समझा। तात्पर्य यह है कि यह निर्मम संसार युगों-युगों से ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा। बेहतर है कि इस संसार के अनुसार हम अपने-आप को ढाल लें।
बिंदास जीने का नाम ही जीवन है। अतः बच्चों के साथ रहें, वृद्धाश्रम में या वृद्धमोहल्ले में रहें, अपने अस्तित्व से दूसरों को खुश रखें, उनपर कम से कम बोझ बनें और बिंदास जियें।