Thursday, October 30, 2014

अपने साथियों को अंतर्यामी न समझें ।

 हमारे साथी भी हमारी तरह इंसान ही हैं, कोई सिद्ध योगी नहीं हैं, लेकिन बदहवासी में एक बार अपने परिवार के सदस्यों को मैनें  अंतर्यामी  समझने की भूल कर दी थी, लेकिन ईश्वर की असीम अनुकम्पा से मुझे अविलम्ब सद्बुद्धि आई और हड्डियाँ तुड़वाकर सपरिवार अस्पताल में भर्ती होने से बच गया।   
  • वर्ष २००९ के जून  माह में पटना राजधानी एक्सप्रेस  से मैं सपरिवार दिल्ली से भाया  पटना मुजफ्फरपुर आ रहा था। दुर्भाग्यवश राजधानी एक्सप्रेस चार घंटे पच्चीस मिनट देरी से पटना पहुँची । रास्ते में ही मेरे एक साथी ने बताया था  कि शार्ट-सर्किट से हमारे क्षेत्रीय कार्यालय मुजफ्फरपुर में भीषण आग लग गयी है और मुझे जल्दी मुजफ्फरपुर पहुँचने की सलाह दी थी। पटना रेलवे स्टेशन पर राजधानी करीब 11 बजे दिन में पहुँची। वहां पता चला कि मुजफ्फरपुर जाने वाले रास्ते में कहीं दुर्घटना हो गयी है और मार्ग अवरुद्ध है, अतः हमलोगों ने हाजीपुर होते हुए रेल-मार्ग से मुजफ्फरपुर जाने का निश्चय किया।  उस दिन प्रचंण्ड धूप थी।  ऑटो-चालक ने किसी कारणवश ऑटो हाजीपुर रेलवे स्टेशन के पीछे लगाया। वह काफी जल्दी में था, अतः उसने मेरी पत्नी के उतरने के पहले ही ऑटो चला दिया, जिससे मेरी पत्नी को हलकी चोट भी लग गयी,  जिससे हमलोग और बदहवाश हो गये।
  •  स्टेशन की तरफ जाने पर हमने पाया कि रास्ते  को लगभग दस फीट खोद दिया गया था और उसके  ऊपर टिन का एक अस्थाई कमजोर पुल बनाया गया था, अतः मैंने निर्णय लिया कि पहले मैं पुल पार कर लूंगा, फिर बारी-बारी से बच्चों और पत्नी को बुला लूंगा। लेकिन मैंने यह मान लिया कि मेरे परिवार के लोग स्वतः ही  मेरे मन की बात समझ गए होंगे और पुल की स्थिति देखते हुए एक-एक करके आयेंगे। आधा पुल पार कर लेने के बाद मुझे सद्बुद्धि आयी और मैनें पीछे मुड़कर देखा।  मेरे परिवार के  बाकी लोग भी उस कामचलाऊ पुल पर चढ़ने ही वाले थे। मेरा बड़ा बेटा तो दो-चार कदम बढ़ा भी चूका था। मैनें तुरत उसे वापस भेजा अन्यथा कमजोर पुल चार ब्यक्तियों का भार निश्चय ही नहीं उठा पाता और टूटकर गिर जाता जो हमारे हाथ-पैर तोड़कर अस्पताल पहुँचाने के लिए पर्याप्त होता।  
  • मेरे गणित के प्रोफेसर मोहम्मद शीष साहब कहा करते थे कि परीक्षा में प्रश्न हल करते समय एक-एक स्टेप ऐसे बढ़ाएं और हर स्टेप को इस तरह स्पष्ट करें मानो परीक्षक एकदम मूर्ख हो।  मैनें उनकी सलाह मानी और गणित में विशिष्टता के साथ स्नातक उत्तीर्ण किया। 
  • व्यवहारिक जीवन में भी प्रोफेसर साहब की सलाह सटीक प्रतीत होती है। आप यह मान लें कि आपके साथी एकदम अनजान हैं और जो भी आप सोच रहे हैं उन्हें स्पष्ट बता दें। संवादहीनता की समस्या जड़ से समाप्त हो जाएगी। 

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